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बाहरी / मनोज कुमार झा
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वृक्ष ने कुछ नहीं कहा
पत्ते एक काँप भर असमंजस में नहीं थे मेरे वहाँ होने से
मोर ने भी कुछ नहीं कहा
वो नाचा मेरे होने से स्वाधीन
चिड़िया को तो मैंने अंडे सेते देखा
रास्तों ने साथ दिया
एक भी काँटा नहीं मेरे लिए अतिरिक्त
जल ने तो प्राण दिया उस ताप में
जो उठी वो अँगुलियाँ थीं
मनुष्य की
मेरी माँ के से उदर में जिन्होंने पाया था आकार।