भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जागर / अज्ञेय

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:56, 19 जुलाई 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=इत्यलम् / अज्ञेय }} {{...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पूर्णिमा की चाँदनी सोने नहीं देती।
चेतना अन्तर्मुखी स्मृति-लीन होती है,
देह भी पर सजग है-खोने नहीं देती।

निशा के उर में बसे आलोक-सी है व्यथा व्यापी-
प्यार में अभिमान की पर कसक ही रोने नहीं देती।
पूर्णिमा की चाँदनी सोने नहीं देती!

जालन्धर, 24 जून, 1945