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गोवर्धन / अज्ञेय

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कल जो जला रहे थे दीप
आज संलग्न-भाव से माँज रहे हैं फर्श
कि कैसे दा ग तेल के छूटें।

कल घर में दीवाली थी,
आज गली में छोकरे कर रहे विमर्श
कि कैसे गल कर बही मोम वे लूटें।

कल हम पुकार कर कहते थे : 'अरे, हमें भी कोई गलबहियाँ दो!'
आज यह रटना है : 'नहीं-नहीं, यह मार्ग रपटना है
राम रे, कैसे भव-बन्धन टूटें!'

दिल्ली, 27 अक्टूबर, 1954