भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वेध्य / अज्ञेय

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:19, 11 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=क्योंकि मैं उसे जा...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
पहले
मैं तुम्हें बताऊँगा अपनी देह का प्रत्येक मर्मस्थल
फिर मैं अपने दहन की आग पर तपा कर
तैयार करूँगा एक धारदार चमकीली कटार
जो मैं तुम्हें दूँगा :
फिर मैं
अपने दक्ष हाथों से तुम्हें दिखाऊँगा
करना वह कुशल, निष्कम्प, अचूक वार
जो मर्म को बेध जाय :
मुझे आह भरने तो क्या
गिरने का भी अवसर न दे :
मैं वह भी न कह पाऊँ
जो कहने की यह भूमिका है-
अवाक् खड़ा रह जाऊँ
जब तक कोई मुझे
भूमिसात् न कर दे।
नहीं तो और क्या है प्यार
सिवा यों अपनी ही हार का अमोघ दाँव किसी को सिखाने के-
किसी के आगे
चरम रूप से वेध्य हो जाने के?

नयी दिल्ली, 29 जुलाई, 1968