भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
भादों की उमस / अज्ञेय
Kavita Kosh से
सहम कर थम से गए हैं बोल बुलबुल के,
मुग्ध, अनझिप रह गए हैं नेत्र पाटल के,
उमस में बेकल, अचल हैं पात चलदल के,
नियति मानों बँध गई है व्यास में पल के ।
लास्य कर कौंधी तड़ित् उर पार बादल के,
वेदना के दो उपेक्षित वीर-कण ढलके
प्रश्न जागा निम्नतर स्तर बेध हृत्तल के—
छा गए कैसे अजाने, सहपथिक कल के ?
दिल्ली, 3 अगस्त, 1941