भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तेरा मेरा मनुवां / कबीर

Kavita Kosh से
Sandwivedi (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 22:10, 5 अक्टूबर 2007 का अवतरण (New page: रचनाकार: कबीर Category:कविताएँ Category:कबीर *~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~ तेरा मेरा मनुवां...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रचनाकार: कबीर

  • ~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

तेरा मेरा मनुवां कैसे एक होइ रे ।


मै कहता हौं आँखन देखी ,तू कहता कागद की लेखी ।

मै कहता सुरझावन हारी ,तू राख्यो अरुझाई रे ॥


मै कहता तू जागत रहियो ,तू जाता है सोई रे ।

मै कहता निरमोही रहियो , तू जाता है मोहि रे ॥


जुगन-जुगन समझावत हारा,कहा न मानत कोई रे ।

तू तो रंगी फिरै बिहंगी , सब धन डारा खोई रे ॥


सतगुरू धारा निर्मल बाहै, बामे काया धोई रे ।

कहत कबीर सुनो भाई साधो ,तब ही वैसा होई रे ॥