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ख़ामोशी / लालित्य ललित

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छोटी गुड़िया के आंसू
थम नहीं रहे हैं
मां का हाल बेहाल है
जेठानी ख़ामोश हो गई
आस-पास की महिलाएं
आंसुओ में भीगी हैं
बुजुर्ग और युवा
टकटकी लगाए खड़े हैं
ख़ामोश, बेआवाज़
एक दूसरे को आंखों से
दे रहे हैं दिलासा
दो दिन पहले
जिस घर में
गूंजती थीं
सबको, खुश करने की
हसरतें
सपनों से आगे
हक़ीक़त को जामा -
पहनाने की अपनी जिद
आज उसी घर में
पसरा है सन्नाटा
कहीं कोई आवाज़ नहीं
बाज़ार है ख़ामोश
चुपचाप खडे़ हैं
दुकानदार
इस घर के बाहर
इस गली से उस गली
जहां मौतें हुईं
छह जन की
इनमें कुछ ऐसे भी थे
जो पढ़ रहे थे
कुछ ऐसे थे
जो अपने परिवार के
केन्द्र कर्मठ सतत् -
संघर्षशील योद्धा थे
वे आज नहीं रहे
कितनों की मांगें
कितनों का दुलार
आज उनसे
बहुत कुछ छूट गया है
अब इन घरों में
वे लौट कर नहीं आयेंगे
उनकी स्थितियां
उनका वज़ूद
उनका ठहराव
उनके अपने पल
नहीं लौटेंगे दुबारा
बूढ़े मां-बाप
टुकुर-टुकुर ताक रहे हैं
यह क्या हो गया
यह क्यों हुआ ?
हमारा क़सूर क्या था ?
जवाब खोजते
परिजन, आत्मजन, दुकानदार
और लगातार रो रही
गुड़िया चुप है
आंखें मिचमिचाती हुई
देख रही है
घर में भीड़ को
बरामदे में लोगों को
घर के बाहर
इत्ती गाड़ियों को
कि ये क्यों जमा हैं ?
क्या करने आए हैं ?
क्यूं आए हैं ?
और मां क्यूं चुपचाप -
दीवार के किनारे
बैठी है
ताई जी मेरी बात सुनो न !
ताई जी गुड़िया की
ओर नहीं देखतीं
दीवार पर मुस्कराती
पापा की फोटो देख
गुड़िया रो पड़ती है
बाहर तेज़ी से
बारिश होने लगी है
बहुत तेज़ी से हो रही बारिश
भीड़ वहीं हैं
कोई हिला नहीं है
सब वहीं है
कोई ऐसे नहीं जाता
अनेक बुज़ुर्ग नम आंखों
से
आसमान ताकते हैं
कोई कुछ नहीं कहता
सब चुपचाप
आख़िरी विदाई को
खड़े हैं ।