कृष्ण दर्शन / सूरदास
राधा जल बिहरति सखियनि सँग ।
ग्रीव-प्रजंत नीर मै ठाढ़ी, छिरकति जल अपनैं अपनैं रंग ॥
मुख भरि नीर परसपर डारतिं, सोभा अतिहिं अनूप बढ़ी तब ।
मनहु चंद-मन सुधा गँडूषनि, डारति हैं आनंद भरे सब ॥
आईं निकसि जानु कटि लौं सब, अँजुरिनि तैं लै लै जल डारतिं ।
मानहु सूर कनक-बल्ली जुरि अमृत-बूँद पवन-मिस झारतिं ॥1॥
जमुना-जल बिहरति ब्रज-नारी ।
तट ठाढ़े देखत नँद-नंदन, मधुरि मुरलि कर धारी ॥
मोर मुकुट, स्रवननि मनि कुंडल, जलज-माल उर भ्राजत ।
सुंदर सुभग स्याम तन नव घन, बिच बग पाँति बिराजत ॥
उर वनमाल सुमन बहु भाँतिनि, सेत, लाल, सित,पीत ।
मनहु सुरसरी तट बैठे सुक, बरन बरन तजि भीत ॥
पीतांबर कटि तट छुद्रावलि, बाजति परम रसाल ।
सूरदास मनु कनकभूमि ढिग, बोलत रुचिर मराल ॥2॥
चितवनि रोकै हूँ न रही ।
स्याम सुंदर सिंधु-सनमुख, सरित उमंगि बही ॥
प्रेम-सलिल-प्रवाह भँवरनि, मिलि न कबहुँ लही ।
लोभ लहर कटाच्छ, घूँघट-पट-करार ढही ॥
थके पल पथ, नाव धीरज परति नहिंन गही ।
मिली सूर सुभाव स्यामहिं, फेरहू न चही ॥3॥
हमहिं कह्यौ हौ स्याम दिखावहु ।
देखहु दरस नैन भरि नीकैं, पुनि-पुनि दरस न पावहु ॥
बहुत लालसा करति रही तुम, वे तुम कारन आए ।
पूरी साध मिली तुम उनकौं, यातैं हमहिं भुलाए ॥
नीकैं सगुन आजु ह्याँ आईं, भयौ तुम्हारी काज ।
सुनहु सूर हमकौं कछु देहौ, तुमहिं मिले ब्रजराज ॥4॥
राधा चलहु भवनहिं जाहि ।
कबहिं की हम जमुन आई, कहहिं अरु पछिताहिं ॥
कियौ दरसन स्याम कौ तुम, चलौगी की नाहिं ।
बहुरि मिलिहौ चीन्हि राखहु, कहत, सब मुसुकाहिं ॥
हम चलीं घर तुमहुँ आवहु, सोच भयौ मन माहिं सूर राधा सहित गोपी, चलीं ब्रज-समुहाहिं ॥5॥
कहि राधा हरि कैसे हैं ।
तेरै मन भाए की नाहीं, की सुंदर, की नैसे हें ॥
की पुनि हमहिं दुराव करौगी, की कैहौ वै जैसे हैं ।
की हम तुमसौ कहति रहीं ज्यौं, साँच कहौ की तैसे है ॥ नटवर-वेष काछनी काछे, अंगनि रति-पति-सै से हैं ।
सूर स्याम तुम नीकैं देखे, हम जानत हरि ऐसे हैं ॥6॥
स्याम सखि नीकैं देखे नाहिं ।
चितवन ही लोचन भरि आए, बार-बार पछिताहिं ॥
कैसेहुँ करि इकटक मैं राखति, नैंकहिं मैं अकुलाहिं ।
निमिष मनौ छबि पर रखवारे , तातैं अतिहिं डराहिं ॥
कहा करै इनकौ कह दूषन,इन अपनी सी कीन्ही ।
सूर स्याम-छबि पर मन अटक्यौ, उन सोभा लीन्ही ॥7॥