बोधि-गीत / विमल राजस्थानी
जिस दिन जंजीरें बिखरेंगी, टूटेंगी हथकड़ियाँ रे
गज दो गज का कफन, साथ देंगी दो-चार लकड़ियाँ रे
जब तक साँसों का सरगम है
तब तक ही जीने का भ्रम है
तार बीन के जब टूटेंगे
रागों से रिश्ते छूटेंगे
भरे हुए कल के मंगल घट
अर्थी के पीछे फूटेंगे
चिता-दाह से बच कर साथी
छाया को झेलें-खेलेंगे, चुन-चुन कर कंकड़ियाँ रे
चिता-भस्म लहरों के रथ पर-
चढ़ चल देंगी सागर-पथ पर
क्षण भर कानन में गूँजेंगी
सूखे पत्तों की ध्वनि मर्मर
हरी-भरी फिर बगिया होगी
वंदनवार सजेंगे घर-घर
दुनिया यों ही शाद रहेगी
नहीं तुम्हारी याद रहेगी
युग-युग से यह यों ही गंगा
बहती आयी और बहेगी
दो दिन बात दिवाली होगी, छूटेंगी फुलझड़ियाँ रे
दर्प रूप का, धन-वैभव का
यश का, पद का यह घमंड क्या ?
मत्त बना माया के मद में
बकता है तू अंड-बंड क्या ?
महाकाल की जब प्रचण्ड-ठोकर की सीमा में आयेगा
लोटेगा मिट्टी में फूटी ज्यों माटी की हँडिया रे