झलक / विमल राजस्थानी
कोमल कंचन तन परस-परस झूमती बूँदियाँ गोल-गोल
यौवन के मस्त-मगन-मन में मिश्री की डलियाँ घोल-घोल
1
चुपके बिखेर जाती बयार
बूँदियाँ मधुर अंजलि में भर
पल-पल पर भर-भर आता है
मेघों की आँखों का सागर
2
अथवा घन में लुक-छिप कोई
रस की उँड़ेलता है गागर
उमड़े मानों या आज मधुर
नभ के शत-शत नन्हें निर्झर
बेसुध से विचर रहे पंछी अपने मनहर पर खोल-खोल
कोमल कंचन तन परस-परस झूमती बूँदिया गोल-गोल
3
तरूवर के सुन्दर कोटर में
कुछ चंचु बदन पर रहे फेर
चुन-चुन लाते हैं चोंचों में
कुछ वन-कुज्जों के मधुर बेर
4
आनन्दित, मस्त-मगन मन में
कुछ यों ही अटपट रहे टेर
कुछ थिरक रहे हैं डालों पर
यह बूँदा-बूँदी हेर-हेर
झुमकों से झमक रहे मानो ये पंछ-दल के मधुर बोल
कोमल कंचन तन परस-परस झूमती बूँदिया गोल-गोल
5
चिर मस्ती का पाकर हुलास
रे झूम रही है हरी घास
इन नभ-कुसुमों की चोटों से
झुक बचने का करती प्रयास
6
‘पीयूष’ पन कर पनप उठी
पा गयी प्राण ज्यों अनायास
कितनी सजीव चैतन्य आज
कल की दुबकी दूबें उदास
उस प्रभु को देती हैं मानों आशीष लहलहा डोल-डोल
कोमल कंचन तन परस-परस झूमती बूँदियाँ गोल-गोल