भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

डोर / अरुण कमल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:28, 10 अक्टूबर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरुण कमल |संग्रह=पुतली में संसार / अरुण कमल }} मेरे पास क...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मेरे पास कुछ भी तो जमा नहीं

कि ब्याज के भरोसे बैठा रहूँ

हाथ पर हाथ धर

मुझे तो हर दिन नाख़ून से

खोदनी है नहर

और खींच कर लानी है पानी की डोर

धुर ओंठ तक


जितना पानी नहीं कण्ठ में

उससे अधिक तो पसीना बहा

दसों नाख़ूनों में धँसी है मट्टी

ख़ून से छलछल उंगलियाँ

दूर चमकती है नदी

एक नदी बहुत दूर जैसे

थर्मामीटर में पारे की डोर ।