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हरियाली ओढ़कर / दिनकर कुमार

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हरियाली ओढ़कर छिपा नहीं सकता वसन्त
अपना पीला चेहरा जो बुख़ार के मरीज़ की तरह
थका-थका-सा है

अधिक देर तक देखा नहीं जा सकता वसन्त का चेहरा
पीलापन कचोटने लगता है हृदय को
अब हम एक नींद की आशा में बिस्तर पर फैल जाएँगे
और मौसम के सपने देखेंगे

सफ़ेद पर्वतमाला से प्रवाहित दूध का झरना देखेंगे
लहलहाती हुई फसल देखेंगे
सरसों के फूल देखेंगे
बारिश की बून्दों में भींगते हुए हम
उल्लास के साथ वृक्षों के बीच
नृत्य का सपना देखेंगे

फिर एक घड़ी हमें पुकारेगी
जब एक घुटन हमारी प्रतीक्षा में बैठी होगी
हमारे सिरहाने
और जैसे कोई पुराना कर्ज़ वसूल रहा हो
वैसे ही एक पीले रंग का दिन
दरवाज़े और रोशनदान से हमें
आवाज़ दे रहा होगा

जैसे तलुए में चुभती हैं फटे जूते की कील
वैसी ही एक दिनचर्या
फुसफुसाएगी कानों में
अब समय है कि वसन्त आएगा
पैबंद लगी हरियाली को ओढ़कर
सामने बैठकर मुस्कराएगा
तब बुखार से तप रहा होगा उसका
समूचा शरीर
कांप रहे होंगे उसके हाथ
धीरे-धीरे गँवाता जाएगा वह अपना होश ।