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सोंहग बालो हालरो / निमाड़ी
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♦ रचनाकार: अज्ञात
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सोंहग बालो हालरो,
आरे निरमळ थारी जोत
(१) नदी सुक्ता के घाट पे,
आरे बैठे ध्यान लगाय
आवत देख्यो पींजरो
आरे लियो कंठ लगाय...
सोंहग बालो...
(२) सप्त धातु को पींजरो,
आरे पाठ्याँ तिन सौ साठ
एक-एक कड़ी हो जड़ाँव की
वा पर कवि रचीयो हो ठाट...
सोंहग बालो...
(३) आकाश झुला बाँधियाँ,
आरे लाग्या त्रिगुण डोर
जुगत सी झुलणो झुलावजो
आरे झुले मनरंग मोर...
सोंहग बालो...
(४) नही रे बाला तू सुतो जागतो,
आरे बिन ब्याही को पुत
सदा हो शीव की शरण म
आरे झुल बाँझ को पुत...
सोंहग बालो...
(५) अणहद घुँघरु बाजियाँ,
आरे अजपा का हो मेवँ
अष्ट कमल दल खिली रयाँ
आरे जैसे सरवर मेवँ...
सोंहग बालो...