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सती सीता / ‘हरिऔध’

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वह शरद ऋतु के अनूठे पंकजों सा है खिला।
तेज है उसको अलौकिक कान्ति-मानो सा मिला।
वह सुधा कमनीय अपने कान्त हाथों से पिला।
मर रही सुकल त्राता को है सदा लेता जिला।
इस कलंकित मेदिनी में है सतीपन वह रतन।
पा जिसे है पूत होता कामिनी-अपुनीत-तन।1।

वह गगन यह है जहाँ उठता नहीं अविचार-घन।
है नहीं जिसमें कलह-रज लेश यह वह है पवन।
है नहीं जिसमें कपट का कीट यह वह है सुमन।
है पड़ी जिस पर न मतलब छींट यह वह है वसन।
है न जिसमें मान मद कटता यही है वह सुफल।
यह सलिल है वह, नहीं जिसमें मनो-मालिन्य-मल।2।

सुख-सदन का दीप यह है नीति-निधि का बिधुविमल।
यह परस्पर-प्यार-सर के अंक का है कल कमल।
वर गुणों, विनयादि की उत्पत्ति का है मंजु थल।
प्रेम के अभिराम-व्रत का है बड़ा ही दिव्य-फल।
यह सुभावुकता-सरोजिनि के लिए है भानु कर।
पूत-चरितावलि मही-रुह के लिए है वारिधार।3।

हैं सुलझ जातीं इसी के हाथ से जग-उलझनें।
स्वर्ग से, जंजाल में डूबे सदन, इससे बनें।
दुख-भरे परिवार इससे ही हुए मन-भावने।
पूत-दम्पति-सुख इसी से ही सुधा में हैं सने।
ज्ञान की गरिमा-रँगी भव के प्रपंचों की जयी।
जाति बनती है इसी की गोद में गौरवमयी।4।

राजती जिनमें सतीपन की रही पूरी कला।
पा जिन्हें सुपुनीत होकर देश यह फूला फला।
गा चरित जिनका हुआ बहुकामिनी-कुल का भला।
अंक में जिसके सुगौरव आर्यगण का है पला।
हो गयी भारतधारा में हैं कई ऐसी सती।
हैं उन्हीं में एक मेदिनी-नन्दिनी शुचि रुचिवती।5।

बंक भौंहों को बना जप कोप विधाता ने किया।
जब पिता ने राम को चौदह बरस का बन दिया।
राज-श्री ने फेर जब उनसे बदन अपना लिया।
तज सकीं उन दुर्दिनों में भी नहीं उनको सिया।
कंज से कमनीय कोमल गात पर आँचें सहीं।
किन्तु अपने प्राणपति की वे बनी छाया रहीं।6।

राज-सुख था, थे जनक से, तात, दशरथ से ससुर।
सम्पदा सुरलोक की थी, औ विभव भी था प्रचुर।
कौसिला सी सास का शुभ अंक था अति ही मधुर।
मुख-कमल था जोहता उत्कण्ठ होकर सर्व पुर।
किन्तु पति को छोड़ कर वे रह सकीं गृह में नहीं।
क्या कलाधार त्याग कर है कौमुदी रहती कहीं।7।

सुर सदन की सी सुहाती थी कुटी पत्तों बनी।
व्यंजनों से थी सरसता कंद मूलों में घनी।
शीश पर फैली लताएँ थीं वितानों सी तनी।
धूप लगती थी उन्हें राका-रजनि की चाँदनी।
श्याम-घन सी तन-छटा अवलोक ऑंखों बर बदन।
था हुआ-नन्दन-विपनि सा मुग्धाता आधार बन।8।

काल पाकर वे हुईं निज प्राण-प्यारे से अलग।
प्रेम में उनके गया लंकेश सा लोकेश पग।
खुल गया उनके लिए सब राज-सुख का मंजु पग।
चूमने बहु सम्पदा उनकी लगी फिर कंज-पग।
दृग उठाकर किन्तु उनकी ओर ताका तक नहीं।
रात दिन बनके तपस्वी के लिए रोती रहीं।9।

जिस दिवस रघुवंश-मणि उर में हुआ भ्रम का उदय।
वह दिवस उनके लिए था और भी आवेग-मय।
आँख में आँसू नहीं था पर विहरता था हृदय।
क्षोभ औ संताप से थी बन गयी धरती निरय।
किन्तु ऐसे काल में भी वे नहीं बिचलीं तनक।
है निखरती और भी पड़ आँच में आभा कनक।10।

है जिसे अपनी पड़ी, है प्रेमिका सच्ची न वह।
प्राण-पति कहती जिसे हैं, है उसी का प्राण यह।
है वृथा जीना, मलिनता जो गयी चितबीच रह।
क्या नहीं सकती सती पति के लिए भू मधय सह।
सोच यह पति की प्रतीति निमित्त तन ममता तजी।
कूद-पावक-मधय, उसमें से कढ़ीं पुष्पों सजी।11।

आह! आया वह दिवस भी जब उन्हें पति ने तजा।
जा बसीं अकेली विपिन के बीच जब जनकांगजा।
छोड़ सारा राजसुख कनकायतन फूलों सजा।
जब बिताने वे लगीं निजबार दुख किंगरी बजा।
जब सगा वे खोज कर भी थीं नहीं पाती कहीं।
देख जब उनकी दशा बन पत्तियाँ रोती रहीं।12।

उन दिनों भी इस सती का राम-मय-जीवन रहा।
जब कहा कुछ तब यही अपने कमल मुख से कहा।
राज्य-पालन पंथ में है लोक-रंजन-व्रत महा।
है वही नृप, रख इसे, जिसने मही पर यश लहा।
जो प्रथित था औ उचित था है वही पति ने किया।
है पतित, निन्दित, नृपति वह जो कलंकित हो जिया।13।

जो नरोंसा ही नृपति भी मोह-ममता में फँसे।
प्यार सुत-वित-नारि का, उर में उन्हीं सा जो बसे।
जो न उसमें आत्मबल हो जो न वह चित को कसे।
तो न है नृप वह, वृथा सिर पर मुकुट उसके लसे।
है वही नर-नाथ जो है न्याय-पथ पहचानता।
आत्म-हित से लोक-हित को जो महत है मानता।14।

स्वार्थ का ही अब समय है, प्यास समता है बढ़ी।
घिर घटा है उर गगन में आत्म-गौरव की चढ़ी।
है अधिक संभव कहें सुकुमारियाँ लिक्खी पढ़ी।
जानकी-सम्बन्धिनी बातें बहुत सी हैं गढ़ी।
हों गढ़ी, पर आत्म सुख त्यागे बिना तज कामना।
है न होता लोक-हित होती है नित अवमानना।15।