साँचा:KKPoemOfTheWeek
रचनाकार: शुभ्र दासगुप्त
देश मतलब सिल्क का झकझक करता हुआ झंडा नहीं ।
देश मतलब रेड रोड पर परेड नहीं
टी०वी० पर मंत्रियों का श्रीमुख नहीं देश का मतलब
देश का मतलब एसियाड,फ़िल्म फेस्टिवल, संगीत-समारोह नहीं ।
देश मतलब कुछ और, कुछ अलग ही ।
बीड़ी बाँधते-बाँधते जो दुबला आदमी क्रमश: और दुबला हो रहा है
अंजाने में टी०बी० के कीटाणु अपने सीने की खाँचे में पाल रहा है
उस आदमी के निद्राहीन रात में
जब गले में उठता है रक्त तब उसी रक्त के धब्बों-थक्कों में
जागता है देश ।
सारा दिन ट्रेन की बोगी में आँवला या बादाम बेचता हुआ
पढ़ा-लिखा युवक जिसे हॉकर कार्ड पाने के बदले
इच्छा के विरुद्ध जाना पड़ता है सभी रैलियों मीटिंग-समावेशों में
गला फाड़-फाड़कर लगाना पड़ता है 'बंदे मातरम' या 'इन्कलाब ज़िन्दाबाद' के नारे
उसी युवक की सेफ़्टीपिन लगी हवाई चप्पल
जब टूट जाती है अचानक यातायात के पथ पर
तब उसी हताशा की घड़ी में
जागता है देश ।
सिनेमा हॉल के सामने सिल्क की सस्ती साड़ी और उससे भी सस्ती
मेकअप से खुद को बेचने के लिए सजाए जो मुफ़लिस लड़की
रोज़ ग्राहक पकड़ने की ख़ातिर तीव्र वासना में निर्लज्ज हो पल-पल गिनती
जब उसका ग्राहक आता है और वही ग्राहक जब बुलाता है उसे -
“आ ...गाड़ी के अंदर “- उसी आह्वान में
जागता है देश ।
देश मतलब लालकिला से प्रधानमंत्री का स्वाधीनता भाषण नहीं
देश मतलब माथे पे लाल बत्ती लगाए झकमक अंबेसडर नहीं
सचिन का शतक या सौरभ की कैप्टेनसी नहीं देश का मतलब
देश का मतलब लीग या डुरांड नहीं |
देश मतलब कुछ और, कुछ अलग ही |
नौ बरस से बंद कारखाने में जंग लगे ताला लटकते गेट के सामने
झूलसा हुआ जो भूतपूर्व श्रमिक माँगता है भीख
उसकी आँखों की तीव्र अग्नि में है देश ।
नेताओं की बात पर ख़ून,डकैती सब पाप करके अचानक फँस जाने पर
इलाक़े में आतंक का पर्याय बना जो युवक पुलिस की धुलाई से
लॉकअप के अँधेरे में कराह रहा है
उसकी आँखों की भर्त्सना में है देश ।
सारा जीवन छात्रों को पढ़ाकर परिवारहीन स्कूल मास्टर !
जब प्राप्य पेंशन न पाकर रेलवे स्टेशन पर मांगने बैठते हैं भीख
उनके अल्मुनियम के कटोरे की शून्यता में है देश ।
देश है । रहेगा । बनावटी कोजागरी* में नहीं
असल अमावस की घोर अंधकार में ।
- आश्विन महीने के कोजागरी पूर्णिमा में धन की देवी लक्ष्मी के आगमन पर उनकी पूजा होती है |
अनुवाद : सुन्दर सृजक