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काबा सही बुतखाना सही तुझे टूँढ ही लेंगे कहीं न कहीं / महेन्द्र मिश्र
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काबा सही बुतखाना सही तुझे टूँढ ही लेंगे कहीं न कहीं।
दीनों-दुनिया के परदा बेपरहदे में भी तुझे देख ही लेंगे कहीं न कहीं।
तू हो लापता कुछ भी पता ही नहीं हम लगा ही तो लेंगे कहीं न कहीं।
गर तू छिपते भी मुझसे हमीं से कहीं तुम से मिल ही तो लेंगे कहीं न कहीं।
मैं हूँ प्रहलाद रूप विभीषण नहीं तुमको वन-वन में जाकर के ढूँढा नहीं।
उनको घर में ही दरसन दिया है सही हम भी वैसा करेंगे कहीं न कहीं।
तू मोहब्बत के पाले पड़े हो अभी और मुरौव्वत की आहें भरोगे सही।
और कसिस खींच लाएगी मेरी तुम्हें हम बुला ही तो लेंगे कहीं न कहीं।
तू बने लामकां हो बताते नहीं, मुहब्बत के शीशी में छिपते नहीं।
अब महेन्दर के दिल में है हसरत यही हम फँसा ही तो लेंगे कहीं न कहीं।