शव / जीवनानंद दास
पानी के भीतर उतरता है चन्द्रमा जहाँ बेंत के वन में
अनेक मच्छरों ने बनाया है अपना घर जिसे
खूँट-खूँट खाती है जहाँ मछली सुनहरी गुपचुप
खोई हुई अपने में, नीले इन मच्छरों को ।
रँग जाती है जहाँ मछली के रँग में अकेली नदी,
खेत है एक ऊँची उगी घास का, बगल में लेटा
पानी इसी के, इस नदी का — देखता ही रहताहै बादल लाल चुपचाप :
या फिर अन्धेरा वह तारों भरी रात का : झुकाती हो
माथा जैसे नीले केशों वाली स्त्री एक
जूड़े समेत !
दुनिया में नदियाँ हैं और भी बहुत-सी पर नदी
तो यही है : लाल बादल की — चाँदनी के बिछे
हुए अनगिन आकारों की ।
ख़त्म यहीं होते हैं, देखें तो, प्रकाश अन्धकार सब :
बचता है कौन ?
बादल वही लाल, मछली वही नीली, चाँदनी वही मौन
तैरा ही करता है शव यहीं मृणालिनी घोषाल का :
लाल और नीला रुपहला चुपचाप
(यह कविता 'महापृथिवी' संग्रह से)