भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ऊलजलूल टिप्पणियाँ / लेव क्रापिवनीत्स्की

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:15, 20 जनवरी 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लेव क्रापिवनीत्स्की |अनुवादक=वर...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(जैसे ही हम वास्‍तविकता को जानने का प्रयास करते हैं, वह गायब हो जाती है - कार्ल यास्‍पर्स)

चारों तरफ देखता हूँ —
शान्ति और प्रगति की राजधानी ।
सर्वाधिक बुद्धिमान विचारों का प्रवाह,
एक पूरी फौज
असैनिक वर्दी में साठ लाख मंदबुद्धि लोग,
उत्‍पादन का साधन-तलवार ।
(थोबड़ा भरा हुआ नीले दागों से
चमड़ी से चूती वोदका। )

ओ सुन्दरी ! कूड़े के पैकेट को ही अपना मर्द मान :
टी० वी० — पहला चैनल — तीन हज़ार सैकिण्ड
(अन्धों और भैंगों के लिए)

दूसरे चैनल पर स्‍मारक-ही-स्‍मारक (नियमत: घोड़ों पर सवार)
हर मकान के लिए दो या इससे अधिक भी ।
चार उँगलियाँ
इंगित करती हुई, निस्सन्देह, एक दूसरे को
पर बिना भर्त्‍सना के नहीं ।

इतना प्‍यारा, इतना मूर्ख और इतना दयनीय है फैन्‍या —
किर्ली-मिर्ली और अज्ञात दिक्‍कू औरत का बेटा —
काटकर खा गया है अपने ही कूल्‍हे ।
बाज़ारू नेतागिरी विज्ञान का प्रसिद्ध पी-एच०डी० भी
इसी विचार का है :
— बकवास करते चलो —
लेकिन ज़रूरत से ज़्यादा नहीं ।