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वे किसान की नई बहू की आँखें
रचनाकार: सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
नहीं जानती जो अपने को खिली हुई --
विश्व-विभव से मिली हुई --
नहीं जानती सम्राज्ञी अपने को --
नहीं कर सकीं सत्य कभी सपने को,
वे किसान की नई बहू की आँखें
ज्यों हरीतिमा में बैठे दो विहग बन्द कर पाँखें ;
वे केवल निर्जन के दिशाकाश की,
प्रियतम के प्राणों के पास-हास की,
भीरु पकड़ जाने को हैं दुनिया के कर से --
बढ़े क्यों न वह पुलकित हो कैसे भी वर से ।