भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अचानक / अनिल त्रिपाठी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:28, 12 मई 2014 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनिल त्रिपाठी |अनुवादक= |संग्रह=अ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
अचानक कुछ नहीं होता
बस एक परदा है
जिसके पीछे पहले से ही
सब कुछ होता है तय ।
और सामने आने पर
लगता है अचानक।
गोधरा अचानक नहीं था
निठारी अचानक नहीं है
अचानक नहीं है
सद्दाम की फाँसी।
दोस्तों का विमुख होना तक
नहीं है अचानक ।
सब पहले से तयशुदा है
सबके अपने-अपने हिस्से हैं ।
परिदृश्य ही ऐसा है
जहाँ मिट गया है
विलाप और प्रलाप का भेद
और नैतिकता
तमाशबीन-सी खड़ी है
हारे थके लोगों का संलाप वन ।
अब अचानक और औचक
कुछ भी नहीं होता
सब अपनी-अपनी गोटी बिछाते हैं
और तुम्हें पता भी नहीं
शिकारगाह में शिकारी ताक में है ।