भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुलसी बाबा / त्रिलोचन
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:39, 16 दिसम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=त्रिलोचन |संग्रह=दिगन्त / त्रिलोचन }} तुलसी बाबा, भाषा ...)
तुलसी बाबा, भाषा मैंने तुमसे सीखी
- मेरी सजग चेतना में तुम रमे हुए हो ।
कह सकते थे तुम सब कड़वी, मीठी तीखी ।
- प्रखर काल की धारा पर तुम जमे हुए हो ।
- और वृक्ष गिर गए मगर तुम थमे हुए हो ।
- कभी राम से अपना कुछ भी नहीं दुराया,
- देखा, तुम उन के चरणों पर नमे हुए हो ।
- विश्व बदर था हाथ तुम्हारे उक्त फुराया,
- तेज तुम्हारा था कि अमंगल वृक्ष झुराया,
- मंगल का तरु उगा; देख कर उसकी छाया,
- विघ्न विपद के घन सरके, मुँह नहीं चुराया ।
- आठों पहर राम के रहे, राम गुन गाया ।
यज्ञ रहा, तप रहा तुम्हारा जीवन भू पर ।
भक्त हुए, उठ गए राम से भी, यों ऊपर ।