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भोर-गीत / महेश उपाध्याय
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सूरज ने किरण-माल डाली
कानों तक फैल गई लाली
क्षितिजों का उड़ गया अन्धेरा
फैल गया सिन्दूरी घेरा
गीतों ने पालकी उठाली
जाग गईं दूर तक दिशाएँ
बाँहों-सी खुल गईं हवाएँ
भर गई जगह खाली-खाली
झीनी-सी छाँह काँपने लगी
धरती की देह ढाँपने लगी
कालिमा उजास में नहा ली ।