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सबका सच / प्रांजल धर

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काश सबका सच एक होता!
शेर और शावक एक जैसा सोचते
एक ही शाश्वत सच को जीते,
या तो दोनों दौड़ते एक-दूसरे को खाने के लिए
या बचाने के लिए!
जैसे दुनिया से बचकर दो प्रेमी
किसी झाड़ी के अँधेरे में एक जैसा सोचते हैं
उसी तरह कुछ.
कहना मुश्किल है कि दोनों
क्या सोच रहे होते हैं
पर सोचते हैं एक-सा,
एक हँसता है तो दाँत दिखते हैं दूसरे के;
मानो वे अपने अतीत को ख़ुशगवार
बनाने के लिए वर्तमान की घड़ियाँ बिताते हैं
यूँ ही....
अगर सबका सच समाकृतिक, समरूप होता
तो गाहे-बगाहे वह पराजित न होता,
सच की वस्तुनिष्ठता मुद्दा न बनती कभी;
बयान, गवाह, सबूत और अदालतें न होतीं
और न ही पड़ती ज़रूरत
आँखों पर पट्टी बाँधने की
न्याय की देवी को!
सुकरात या गैलीलियो की ये दशा न होती.
ऐसा नहीं कि तब असहमति न होती
विरोध न होता, टकराव न दिखता,
होता विरोध
लेकिन विरोध का.
एक अलग क़िस्म की बहुवर्णी बहुलता
हृदय के रंगीले प्रांगण में
ख़ुशबू बिखेरती अपनी.
तब सच का वर्ग न होता,
यह न कहा जाता कि कुछ सच
अपनी उम्र से ज़्यादा जी चुके हैं
इसीलिए उन्हें बदल देना चाहिए!