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पनघट लीला / सूरदास

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पनघट रोके रहत कन्हाई ।
जमुना-जल कोउ भरन न पावै, देखत हीं फिर जाई ॥
तबहिं स्याम इक बुद्धि उपाई, आपुन रहे छपाई ।
तट ठाढ़े जे सखा संग के, तिनकौं लियौ बुलाई ॥
बैठार्‌यौ ग्वालनि कौंद्रुमतर, आपुन फिर-फिरि देखत ।
बढ़ी वार भई कोउ न आई, सूर स्याम मन लेखत ॥1॥


जुवति इक आवति देखी स्याम ।
द्रुम कैं ओट रहै हरि आपुन, जमुना तट गई वाम ॥
जल हलोरि गागरि भरि नागरि, जबहीं सीस उठायौ ।
घर कौं चली जाइ ता पाछैं, सिर तें घट ढरकायौ ॥
चतुर ग्वालि कर गह्यौ स्याम कौ कनक लकुटिया पाई ।
औरनि सौं करि रहे अचगरी, मोसौं लगत कन्हाई ॥
गागरि लै हँसि देत ग्वारि-कर, रीतौ घट नहिं लैहौं ।
सूर स्याम ह्याँ आनि देहु भरि तबहि लकुट कर दैहौं ॥2॥


घट भरि दियौ स्याम उठाइ ।
नैंकु तन की सुधि न ताकौं, चलौ ब्रज-समुहाइ ॥
स्याम सुंदर नैन-भीतर, रहे आनि समाइ ।
जहाँ जहँ भरि दृष्टि देखै, तहाँ-तहाँ कन्हाइ ॥
उतहिं तैं इक सखी आई; कहति कहा भुलाइ ।
सूर अबहीं हँसत आई, चली कहाँ गवाँइ ॥3॥


नीकैं देहु न मेरी गिंडुरी ।
लै जैहैं धरि जसुमति आगैं, आवहु री सब मिलि झुँड री ।
काहूँ नहीं डरात कन्हाई, बाट घाट तुम करत अचगरी ।
जमुना-दह गिंडुरी फटकारी, फौरी सब मटुकी अरु गगरी ॥
भली करी यह कुँवर कन्हाई, आजु मेटहै तुम्हरी लँगरी ।
चलीं सूर जसुमति के आगैं, उरहन लै ब्रज-तरुनी सगरी ॥4॥


सुनहु महरि तेरौ लाड़िलौ, अति करत अचकरी ।
जमुन भरन जल हम गईं, तहँ रोकत डगरी ॥
सिरतैं नीर ढराइ दै, फोरी सब गगरी ।
गेडुरि दई फटकारि कै, हरि करत जु लँगरी ॥
नित प्रति ऐसे ढँग करै, हमसौं कहै धगरी ।
अब बस-बास बनैं, नहिं इहिं तुव ब्रज-नगरी ॥
आपु गयौ चढ़ि कदम पर, चितवत रहीं सगरी ।
सूर स्याम ऐसैं हि सदा, हम सौं करै झगरी ॥5॥


ब्रज-घर-घर यह बात चलावत ।
जसुमति कौ सुत करत अचगरी जमुना जल कोउ भरन न पावत ॥
स्याम वरन नटवर बपु काछे, मुरली राग मलार बजावत ।
कुंडल-छबि रबि किरनहुँ तैं दुति, मुकुट इंद्र-धनुहुँ तैं भावत ॥
मानत काहु न करत अचगरी, गागरि धरि जल मुँह ढरकावत ।
सूर स्याम कौं मात पिता दोउ, ऐसे ढँग आपुनहिं पढ़ावत ॥6॥


करत अचगरी नंद महर कौ ।
सखा लिये जमुना तट बैठ्यौ, निबह न लोग डगर को ॥
कोउ खीझो, कोउ किन बरजौ, जुवतिनि कैं मन ध्यान ।
मन-बच-कर्म स्याम सुन्दर तजि, और उ जानति आन ॥
यह लीला सब स्याम करत हैं, ब्--रज-जुवतिनि कैं हेत ।
सूर भजे जिहिं भाव कृष्न कौं, ताकौं सोइ फल देत ॥7॥