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प्लाज़्मा / विजेन्द्र

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मूँगे की चट्टानों से झरी रज ने
हृदय में
प्यार के प्रवाल-द्वीप भी बोए हैं
स्याह समुद्र के बीच सख्त चट्टानों पर
लहरें सिर पटकती रही हैं
प्यार सतह पर उतराता फेन नहीं है
न आाकाश
न ग्रेनाइट सन्नाटा
ऋतु की नाभी से चुआ पराग कण भी नहीं है
ओ अकाश
कम्प
जल
वो इस दुनिया को और सुन्दर बनाने की इच्छा का
एक तपा नाम है।
मोतियों की चमक जैसा मेरा हृदय क्यों न हो
आर-पार देखने वाली आँखें
राख के ढेर को कुरेदकर
मैं इस ध्वंस पर कब तक रोता रहूँगा।
ओ मेरे दर्द
तू रो मत
नीम की बारीक कटानों में देखता हूँ
दिन की रची वक्र छवियाँ।
हर क्षण बनती प्यार की नई आकृतियों में
एक सुन्दर भविष्‍य की भी है
सुनता हूँ उसकी झरन की दबी आवाज
जो गिरती रहती है
पुराने पलस्तर की छाती से
ओ पछुआ-
तू और कठोर होकर चल
मेरे शोक गीत के विरूद्ध
गलगल बजाती है अपना जलतंरग।
एक तरफ उजाला है दूर तक
दूसरी तरफ मृत सागर का गर्त
अन्दर बोखलाया दैत्य मुझे चुनने नहीं देता
कितना गँदला हो चुका है जल
बाहर की दुनिया क्या
खुद की शक्ल नहीं दिखती।
क्या वों आँच बुझ चुकी है।
जिसे मैं खोजकर लाया था इतने जतन से
कहाँ पाऊँ मरूस्थली में
गंगा, सिंध, सतलज और ब्रहा्रपुत्र
मेरी रंगो में बहता खून
ओ तरल
वहाँ गहराई में छिपा
प्यार का प्लाज़्मा भी है।

2007