भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सरोज / जयशंकर प्रसाद

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:30, 2 अप्रैल 2015 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अरूण अभ्युदय से हो मुदित मन प्रशान्त सरसी में खिल रहा है
प्रथम पत्र का प्रसार करके सरोज अलि-गन से मिल रहा है
गगन मे सन्ध्या की लालिमा से किया संकुचित वदन था जिसने
दिया न मकरन्द प्रेमियो को गले उन्ही के वो मिल रहा है
तुम्हारा विकसित वदन बताता, हँसे मित्र को निरख के कैसे
हृदय निष्कपट का भाव सुन्दर सरोज ! तुझ पर उछल रहा है
निवास जल ही में है तुम्हारा तथापि मिश्रित कभी न होेते
‘मनुष्य निर्लिप्त होवे कैसे-सुपाठ तुमसे ये मिल रहा है
उन्ही तरंगों में भी अटल हो, जो करना विचलित तुम्हें चाहती
‘मनुष्य कर्त्तव्य में यों स्थिर हो’-ये भाव तुममें अटल रहा है
तुम्हें हिलाव भी जो समीरन, तो पावे परिमल प्रमोद-पूरित
तुम्हारा सौजन्य है मनोहर, तरंग कहकर उछल रहा है
तुम्हारे केशर से हो सुगन्धित परागमय हो रहे मधुव्रत
‘प्रसाद’ विश्‍वेश का हो तुम पर यही हृदय से निकल रहा है