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मत्स्यगर्भा स्वपन / प्रवीण काश्यप
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काल्हि नहि आयल निन्न
नहि भेट भेल अहाँ सँ!
अहींक स्मरण में उरल निन्न,
बहा ल गेल अहाँ कें
हमर पहुँच सँ बेस दूर-दूर!
काल्हि अहाँ नहि फँसि सकलहुँ
हमर स्वपनक बनायल जाल में!
होइ छैक कहियो-काल
चतुर मलाह हारै छै!
अहाँ हमर सोन-मछरी
नहि अयलहुँ हमर बूनल जालमे।
काल्हि हम नहि बना सकलहुँ
अपन विचित्र, विचार सँ,
काल्पनिक उहापोहक व्यसन सँ
कोनो नान्हियो टा घेराबा
जाहि में मात्र अहीं टा फँसी!
काल्हि नहि भेल निन्न
विरहक वेदना विदा कयलक निन्न!
छटपटी लगले रहल सगर राति
काल्हि नहि भेटल संपर्क सूत्रक छोर
जकर दोसर कात मात्र अहींटा रही।