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आज / केदारनाथ अग्रवाल
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खोल चौड़ी कड़ी छाती को प्रति क्षण
अब नगाड़े कब कड़कते !
ढोल, ढीले बोल को ऊपर उठाने
अब नहीं हम ज़ोर भरते !
अंग-अंग उमंग में नव रंग लेकर
अब न दंग मृदंग करते ।
ठंड से ऎंठे हुए, ठिठुरे बहुत ही,
अब न तबले ही ठनकते !!
प्यार-पारावार बारम्बार पा कर
अब न तार-सितार तनते ।
लीन अन्तर्गीत के मद पीन में हो
बीन के न विहाग तरते ।
राव-रंगी, भाव-भंगी, केलि-संगी,
स्वर सरंगी के न सजते ।
आज बर्बर क्रूर कर्कश विश्व भर को
सभ्यता के गाल बजते ।