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चिम्पाँजी / नीरेन्द्रनाथ चक्रवर्ती

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चिम्पाँजी, तुम्हें मैंने आज चिड़ियाघर में
बहुत दुखी देखा था
तुम बहुत ही दुखी भाव से
झील के किनारे बैठे थे
तुम एक बार भी लोहे के झूले पर नहीं चढ़े
केले, मूँगफली, काबुली चने
यूँ ही उपेक्षित बिखरे पड़े रहे!
तुमने उनको देखा भी नहीं
दुखी इन्सान की तरह
तुम घुटनों में सिर गड़ाए
झील के किनारे सिर्फ़ बैठे ही रहे ... अकेले।

चिम्पाँजी, तुम्हें मैंने आज क्यों इतना दुखी देखा?
तुम्हें क्या दुख है?
तुमने इन्सान बनने की कोशिश में
लाखों वर्षों की सीढ़ियाँ पार की थीं
कुछ सीढ़ियाँ पार करने में की गई भूलों के कारण
इन्सान नहीं बन सके,
झील के किनारे क्या तुम इसी दुखी की वजह से
आकर बैठे थे?

चिम्पाँजी, मैंने तुम्हें आज बहुत ज़्यादा दुखी देखा था
तुम इन्सान लगभग बन ही गए थे
फिर भी पूरी तरह नहीं बन सके
शायद इसी वजह से आज तुम
झूले पर नहीं चढ़े
बच्चों-बूढ़ों को अर्द्धमानव की तरह
तरह-तरह के मज़ेदार करतब नहीं दिखाए
तुमने शायद देखा नहीं या फिर हो सकता है देखा भी हो
दर्शक लोग पूरे बन्दरों की तरह तुम्हें धिक्कारते हुए
शेर के पिंजरे की ओर चले गए थे!!

मूल बांग्ला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी