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राजमार्गों से बेदख़ल / प्रेमनन्दन

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राजमार्गों से बेदख़ल हो कर
अपनी घुच्ची आँखों से
पगडण्डियों को रौंदते हुए
घिसटता हुआ,
वह आदमी
इतिहास की अन्धी गुफ़ाओं में
आर्यो, मुगलों, अँग्रेज़ों...
और तथाकथित अपनों की
नीचताओं को देखते-देखते
अपनी आँखों में हो चुके मोतियाबिन्द को
अपने जंग लगे, भोथरे नाख़ूनों से
खरोंचने की कोशिश में
अपनी आँखों की रोशनी खो बैठा है।

उसकी फटी जेब में
जो एक टुकड़ा सुख चमक रहा है
वह उसका संविधान है
इसे वह जिसको भी दिखाता है
वही अपने को,
इससे ऊपर बताता है।

फिर भी वह,
इसी एक टुकड़े सुख की मद्धिम रोशनी
और बिखरी हुई लालिमा को
सफ़ेद हो चुके अपने रक्त में मिला कर
जीने की बेशर्म कोशिश में
इसके-उसके-सबके सामने गिड़गिड़ा रहा है,
और अपने पोलियोग्रस्त शरीर को
खड़ा करने की लाचार कोशिश में
बिना जड़ों वाले पेड़-सा लड़खड़ा रहा है।

वह आदमी कोई और नहीं,
अपना हिन्दुस्तान है
जो कभी ‘शाईनिंग इण्डिया’ की चमक में खो जाता है
तो कभी ‘भारत निर्माण’ के
पहियों तले रौंदा जाता है
और प्रायः ही
राजनीतिक पार्टियों के,
चुनावी घोषणापत्रों के खोखले नारों की
ज़हरीली चकाचौंध में
अपना रास्ता भूल जाता है।

लेकिन उसकी अटूट जिजीविषा तो देखिए
कि टूटी हुई हड्डियों,
पीब से सने शरीर
और भ्रष्टाचार के कोढ़ से
गल चुके अपने पैरों को
रोज़ अपने ख़ून के आँसुओं से धोता है
और तिरंगे के रूके हुए चक्र को
गतिमान करने की असहाय कोशिश में
ख़ुद को ही
अपने कन्धों पर ढोता है ।