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धारा / बलबीर माधोपुरी
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सोचता हूँ-
अचानक आए तूफान में
टूटे-गिरे पौधे को देखकर
करीब खड़े पुराने दरख़्तों पर
क्या–क्या न बीती होगी।
और याद आता है
दरख़्तों का जीवट
अपने आप ही फिर
कदमों में आ जती है फुर्ती
मुरझाये मन का परिन्दा
फिर से भरने लगता है
ऊँची उड़ाने।