भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

चींटी / मोहन राणा

Kavita Kosh से
86.161.112.151 (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 22:41, 10 मई 2008 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


मुझे नहीं मालूम
नहीं मालूम कि तुम जानना क्या चाहते हो !
यही बचाव
सफाई मैं देता रहा
सच के सवाल पर
और वे पूछते रहे फिर भी
उन्हें सच पर शक था
वह अजनबी था उनके संसार में


और मैं
ले जाता अपने वज़न से कई गुना झूठ
यहाँ से वहाँ
उसे सच समझ कर


डूबता हुआ सूरज छोड़ गया
सुनहरे कण पत्तों पर,
पेड़ उन्हें धरती में ले गया अपनी जड़ों में
और कुछ मैंने छुपा लिए पलकों में
बुरे मौसम की आशंका में,
किसी दरार को सींते हुए

27.4.2003