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आपबीती क्या सुनाएँ / अमरेन्द्र
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आपबीती क्या सुनाएँ
गाँव की ठण्डी हवाएँ !
जो मिला तुमसे मुझे था
खो गया वह शहर मंें है,
नाव पन्नी की बनाई
अब वही तो लहर में है;
भाँसते टुक-टुक निहारूं
पीर संभले न संभाले,
आग जलती है करों में
पंक्तियों में पाँव-छाले ।
जब हँसी ही सज न पाई
आँसुओं को क्या सजाएं !
क्यों यही मन में हमेशा
जहर पीलूँ, मुक्ति पाऊँ !
अग्नि, क्षिति, जल का खिलौना
मृत्यु-हाथों सौंेप जाऊँ !
क्या नहीं ऐसी जगह है
भाव यह बदले अचानक ?
शांत में, शृंगार में हांे
रौद्र, सारे रस भयानक ।
शोक हो उत्साह-वश में,
मोह से मन को मिलाएँ !