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जिजीविषा / अमरेन्द्र

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घर तो चलना ही होगा, यूं कब तक रुके रहोगे
माना यहाँ जेठ पर भारी मधुवन की छाया है
लेकिन भूलो नहीं, स्वप्न का मधुर लोक माया है
आज भले मैं बोल रहा हूँ, कल तुम यही कहोगे ।

किसी बात पर रीझे रहना, मृत्यु नहीं तो क्या है
दिखता है कुछ दृश्य नहीं, जो आगे आने वाला
सुख तो पाँवों में बेड़ी, बेड़ी से जकड़ा ताला
मत भूलो कि राजभवन में रोती कौशल्या है ।’’

‘‘घर जाने से पहले कैसी इच्छा पाले जीवन
इस मधुवन की छाया का ही ज्वाल-जलन अच्छा है
आवां पर जो जले नहीं, वह घट क्या; घट कच्चा है
मिट्टी, धुआं, आग में सन कर, फिर हो ले तन पावन ।

ऐसे में घर की यादें, तो सूली पर ही सेज
लाल चुनर को काले रंग से रंगता हो रंगरेज ।