भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छैनी / अनिल गंगल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:24, 20 जून 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= अनिल गंगल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavit...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

छैनी की ठक-ठक के साथ
जीवन की रेत में गूँज रही है एक जल-तरंग

नटी की रस्सी की तरह
तनी हुई हैं देह की सारी इन्द्रियाँ
आँखें अर्जुन की आँख की तरह
मछली की आँख पर केन्द्रित
कर रहे कन्धे और कलाइयाँ
एक दूसरे के साथ संगत
पत्थर पर फिसलती छैनी करती है रक्स
अविस्मरणीय देह-राग के बीच

छैनी
छीलती नहीं सिर्फ़ पत्थर की सतह
अन्तरतम को तराशती हुई
पत्थर की आत्मा को ख़ूबसूरती में बदलती है
कमतर नहीं कारीगर के हाथ किसी काल्पनिक ब्रह्मा के हाथों से
जो छैनी की मदद से बदल रहे अनगढ़ पत्थर को
किसी जीवंत देवी-देवता में

जब टटोल रहे होते हैं हम गहन धुंध के बीच रास्ता
तब यही छैनी अँधेरे को तराश कर
एक नए सूर्योदय के सामने हमें ला खड़ा करती है।