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बदलाव / अशोक शुभदर्शी

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हवा के रुख
वहेॅ रंग पुरानोॅ छै
कुछ भी नया
नै होय रहलोॅ छै
बगावत के बिना

बनलोॅ छै हवा रोॅ रुख
वहेॅ पुरानोॅ
वहेॅ शान-शौकत के
ऐसोॅ आरामोॅ के
बादशाहत के
शोशण के
फरेब के, साजिश के
आरोॅ आपनोॅ खेमा केॅ बचाबै लेली
पीड़ितोॅ, दलितोॅ पर ही
उल्टे इल्जाम के

इल्जाम गरीबोॅ पर अत्याचार के
स्त्री पर व्याभिचार के

काँपी उठलोॅ छै हमरोॅ आत्मा
चितकार करी उठलोॅ छै
देखी केॅ ई सब
लगातार होतें हुअें
आरोॅ ई हवा छै
कि बही रहलोॅ छै
सन-सन करतें हुअें
तेज-तेज चलतें हुअे
ओकरा कहाँ कोय फिकिर छै
हमरोॅ-तोरोॅ
आरोॅ ऊ वहेॅ रंग वही रहलोॅ छै
हमरा आँखी के सामना सें
बायें सें, दायें सें
ऊपर सें,
नीचें सें
बिना कोय चिंता फिकिर के

लानै लेॅ ही पड़तै
अबकी बार पूरे जोर लगाय केॅ
यै रुख में बदलाव
बगावत करै लेॅ ही पड़तै
एैन्होॅ बगाबत
कि एैन्होॅ क्रांति
कि वें फेरू सें
फन नै उठाबेॅ सकेॅ
दूबारा फेरू सें बहै के
आपनोॅ वहेॅ
पुरानोॅ रुख के साथ।