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कोजागर / नामवर सिंह
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कोजागर
दीठियों की डोर-खिंचा
(ऊगते से)इंदु का आकासदीप-दोल चढ़ा जा रहा।
गोरोचनी जोन्ह पिघली सी
बालुका का तट, आह, चन्द्रकान्तमणि सा पसीज-सा रहा।
साथ हम
नख से विलेखते अदेखते से
मौन अलगाव के प्रथम का बढ़ा आ रहा।
अरथ-उदास लोचनों में नदी का उजास
टूटता, अकास में, कपास-मेघ जा रहा।
नीर हटता सा
क्लिन्न तीर फटता सा गिरा
किंतु मूढ़ हियरा, तुझे क्या हुआ जा रहा।