भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बस, तुम्हारे / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:01, 11 अगस्त 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=मन गो...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
बस, तुम्हारे लिए गीत रचता रहा
सबने ऊँगली उठाई, बहुत कुछ कहा।
मैंने राहों के कण्टक न देखे कभी
और चुभते गये वो सभी-के-सभी
मुझको अच्छा लगा जब तुम्हारे लिए
नीर आँखें के कोरों से चुपके बहा।
मेरे गीतों को लोगों ने दी गालियाँ
मन-सुमन पर गिराई बहुत बिजलियाँ
तुमसे होता अगर प्यार मुझको नहीं
आग की इस नदी पर मैं कैसे रहा !
मत डराओ मुझे तेज तलवार से
मैं तो जब भी कटा फूल की धार से
मुझको कोशी या गंगा का कुछ भय नहीं
मैं शरद की ही कुल्या में औचक दहा।