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वे आँखें / सुमित्रानंदन पंत
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अंधकार की गुहा सरीखी
उन आँखों से डरता है मन,
भरा दूर तक उनमें दारुन
दैन्य दुख का निरव रोदन!
वह स्वाधीन किसान रहा,
अभिमान भरा आँखों में इसका,
छोड़ उसे मँझधार आज
संसार बहा सदृश बहा खिसका!
शेष भाग शीघ्र ही टंकित कर दिए जाएंगे।