भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हाथ हथौड़ा रे / ब्रजमोहन

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:04, 16 अक्टूबर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ब्रजमोहन |संग्रह=दुख जोड़ेंगे हम...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हाथ हथौड़ा रे
ओ भैया, हाथ हथौड़ा रे
तेरी छाती से बढ़कर न पर्वत चौड़ा रे...

गला-गलाकर लोहे को
तू ख़ुद इस्पात बना है
तेरे आगे कोई सीना
कब तक भला तना है
हर युग में ख़ूनी जबड़ों को तूने तोड़ा रे...
हाथ हथौड़ा रे...

ज़हरीले साँपों का दुशमन
तू सबसे पहला है
ज़हरीले साँपों को तूने
हर युग में कुचला है
ज़िन्दा अपने दुशमन को न तूने छोड़ा रे...
हाथ हथौड़ा रे...