पुनरपि / रामनरेश पाठक
मेरी अंजलि में पूर्णविराम है
मित्र! पूषा! सविता!
अर्घ्य लो
कई-कई अल्पविराम या अर्धविराम
और संयोजक, वियोजक, संबोधन
या विस्मयादिबोधक तो पहले ही अर्पित थे
तमसा के किनारे
एक बार फिर
निःशब्द, निस्तब्ध
महासमुद्र को अर्पित
प्रार्थना में निमग्न
सृष्टि के ध्रुवान्त पर अँगूठे का स्पर्श किए
फिर-फिर एक अज्ञात पर टककी बाँधे
दाहिने हाथ में त्रिशूल
बायें में कमंडल
दिगंबर सारा आकाश लपेटे हुए
रूप-अरूप के परे
गंध-अगंध के परे
रस-अरस के परे
स्पर्श-अस्पर्श के परे
शब्द-अशब्द के परे
तत्व-अतत्व के परे
आत्मा-अनात्म के परे
ज्ञान-अज्ञान के के परे
विचार-अविचार दूध के परे
एक संज्ञा की प्रतीक्षा में
एक संबोधन की प्रतीक्षा में
अनागत की प्रतीक्षा में
पुनरपि... पुनरपि...
आकर समाधिस्थ
समाधिस्थ हूं केवल