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काला / अनिल गंगल

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एक काला अपनी कालिमा में सदा मगन रहता हुआ
और ज़्यादा काला हो जाने का सपना देखता है
कहता अपने सौभाग्य को शुक्रिया
सोचता —
कि अच्छा ही हुआ
इस बदलाव की आँधी में सफ़ेद न हुआ

एक थोड़ा और ज़्यादा काला
थोड़े उन्नीस काले से कालेपन में थोड़ा इक्कीस साबित होता
रहता अपनी कथित श्रेष्ठता के ग़रूर में ग़र्क़
मुँह से हरदम दोमुँही जीभ लपलपाता

जो सबसे ज़्यादा काला है कालेपन की इस नुमाइश में
उसे अफ़सोस है
कि पार कर आ चुका है वह आख़िरी हद तक
अब वह चाहे
तो इससे ज़्यादा और चाहे जितना कलौंच में लिबड़ जाए
पर इससे ज़्यादा काला होना
अब असम्भव है उसके लिए

फिर भी कुछ काले हैं
जो जितने काले हैं, उसी में आत्मतुष्ट हैं
कि दोनों हाथों से अगर उलीचें वे ज़माने पर यह कालिख
तो माशा-रत्ती भर भी कम न होगी यह
करती हुई न जाने और कितनों को कालेपन से सराबोर