भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आजादी / राजीव रंजन

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:40, 9 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजीव रंजन |अनुवादक= |संग्रह=पिघल...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चूम-चूम फाँसी के फँदे को हँस-हँस
उन्होंने अपनी जान गँवायी थी।
तब हमने यह आजादी पायी थी।
अपने लहु की आहुति दे जन-जन में
क्रांति की आग सुलगायी थी।
तब हमने यह आजादी पायी थी।
आजाद, भगत, अशफाक जैसे
लाखों ने अपने हाथों अपनी चिता जलायी थी।
तब हमने यह आजादी पायी थी।
अपने खून से सूर्ख लाल कर भारत माँ को
जब उन्होंने चुनर ओढ़ायी थी।
तब हमने यह आजादी पायी थी।
माताएँ हृदय पर रख पत्थर अपने
लाल की शहादत पर मुस्कायी थी।
तब हमने यह आजादी पायी थी।
बहनों ने हुलस-हुलस कर भाई की
कलाई पर बलिदानी राखी सजायी थी।
तब हमने यह आजादी पायी थी।
झेलम, सतलज, गंगा अपने पावन
पानी में जब आग लगायी थी।
तब हमने यह आजादी पायी थी।
स्वाभिमान से जीने को महराणा सा
सबने जब घास की रोटी खायी थी।
तब हमने यह आजादी पायी।
अस्सी बरस की बूढ़ी हड्डियों में
जब आजादी बिजली बन समायी थी।
तब हमने यह आजादी पायी थी।
जब देश की नारी लक्ष्मीबाई सा
पायल को पिघला तलवार बनायी थी।
तब हमने यह आजादी पायी थी।
माताओं ने चँदा मामा छोड़ बच्चों को
बलिदान वाली लोरी सुनायी थी।
तब हमने यह आजादी पायी थी।
जलियाँबाला बाग की लाल मिट्टी जब
हर फूल में आग भड़कायी थी।
तब हमने यह आजादी पायी थी।