भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पत्ते की शिराएँ / रुस्तम
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:01, 26 नवम्बर 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रुस्तम |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poe...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
पत्ते की
शिराएँ
बढ़ रही थीं।
उनका ताम्बई रंग था।
पत्ते की
शिराएँ
फैल रही थीं।
पत्ता फैल रहा था।
वृक्ष ने
पूरी पृथ्वी को
ढाँप लिया था।