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गोपीचंद-भरथरी / राजेराम भारद्वाज
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- सांग:-गोपीचंद-भरथरी # अनुक्रमांक-26 #
जवाब- गोपीचंद का गुरु गौरख से।
जिसका कंथ रहै ना पास, कामनी रहती रोज उदास, छः रूत बारा मास, बिचारी दुखिया मन मैं॥ टेक॥
चैत गया चमक रही ना सै, यो बैसाख बदन बट खा सै, तेज हवा सूर्य तपै आकाश, गहरी धूप जेठ की प्यास, गई निर्जला ग्यास, पिया बिन दुख भारी तन मैं॥
साढ़ मैं रूत आवै बरसण की, तीज त्यौहार घटा सामण की, ना झूलण की आस, करके मणि का प्रकाश, जैसे काली नागण घास, करै खिलारी सावन मैं॥
भादुआ-आसोज गया दशहेरा, कातक कोतक करै भतेरा, मेरै मंगसर-पोह की चास, मांह की बसंत पंचमी खास, गए छोड हंसणी नै हांस, उडारी लेगे गगन मैं॥
फागण गया दूलहण्डी फाग, पिया-ऐ-गेल्या गया सुहाग, घर त्याग लिया संन्यास, राजेराम लिखै इतिहास, कद गोपनियाँ मैं रास, करै गिरधारी मधूबन मैं॥