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नदी / राकेश रंजन
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मुझे सपने में दिखी
एक नदी
उसकी आँखों में भरे थे
झड़े और
सड़े हुए पत्ते और फूल
उनमें जमा था अपार
जंगल की यादों का अन्धकार
उसके पैरों में फैली थी रेत
और रेत, सिर्फ़ रेत
कन्धों पर शव लादे
अंगों पर हिंस्र मगरमच्छों के दिए हुए
ज़ख़्म लिए
खड़ी थी वह
टूट रही थी उसकी देह
हड्डियाँ उसकी
भारग्रस्त बजती थीं कट-कट
उसके वक्ष पर पड़े थे
अकालग्रस्त मछलियों के काँटे
और सिक्के
फेंके हुए हमारे
आसपास उसके
कहीं नहीं दिखता था जीवन का
कोई पदचिह्न
मुझे सपने में दिखी वह
बरसों से खोई-सी
सोई-सी चिता पर, पराई-सी, कोई-सी
उसके लबों पर न गिला, न फरियाद !
उसे देखा यों मैंने
महान् एक निद्रा के बाद !