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अपराजित / महेन्द्र भटनागर
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हो नहीं सकती पराजित युग-जवानी !
संगठित जन-चेतना को,
नव-सृजन की कामना को,
सर्र्वहारा-वर्ग की युग -
युग पुरानी साधना को,
- आदमी के सुख-सपन को,
- शांति के आशा-भवन को,
- और ऊषा की ललाई
- से भरे जीवन-गगन को,
मेटने वाली सुनी है क्या कहानी ?
पैर इस्पाती कड़े जो
आँधियों से जा लड़े जो,
हिल न पाये एक पग भी
पर्वतों से दृढ़ खड़े जो,
- शत्रु को ललकारते हैं,
- जूझते हैं, मारते हैं,
- विश्व केर कर्तव्य पर जो
- ज़िन्दगी को वारते हैं,
कब शिथिल होती, प्रखर उनकी रवानी !
शक्ति का आह्नान करती,
प्राण में उत्साह भरती,
सुन जिसे दुर्बल मनुज की
शान से छाती उभरती,
- जो तिमिर में पथ बताती,
- हर दिशा में गूँज जाती,
- क्रांति का संदेश नूतन
- जा सितारों को सुनाती,
बंद हो सकती नहीं जन-त्राण-वाणी !
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