कविता (2) / मोहम्मद सद्दीक
मानखे री पत
मिनखा चारै रो पाणी
खुद सिरजणहार
थारो म्हारो साथी
आपरै आपै में
रम्योड़ो गम्मयोड़ो
ध्यान रो धारक
धुन रो धणी
ओ सांचो मोती
हीरे री कणी
ईं री सुणी। घणी सुणी
ढूंढो अठै-तो लाधै कठै
देखो अठै तो लाधै बठै
सायर कवि कलाकार
सुणी है ईं नै
आगली पाछली सगळी दीसै
ओ सगळी जूण री जुगत नै जाणै
बांरै मांयले रो मांयलो पिछाणै
लारलै जलम सूं ले‘र
आगले जलम तांई रो
हिसाब किताब जाणै
ओ परख पारखी
सो माथां सूं सोचणियो
हियेरी अचूक आंख सूं देखणियो
ओ लोगां नै
कपड़ां में नागा अ‘र नागां नै
कपड़ां में देख लेवै।
ओ पताळ फोड़ कुवांरी
पताळ री था लेवणियो
आकासां उड्डै
इण रै आगै सिकरा सरमावै
किरत्यां नाचण लाग जावै
सूरज सूं सोनो उगळावै
चांद री चांदी बरसावै
ओ तावड़ै छिंयां रो पारखी
मे‘ आंधी रो सेंधो
तूफानां नै तोलणियो
खारो मीठो बोलणियो
सबसूं पैली बोलै
ओ पांगळी दुनियां री आंख
ओ आंधळी दुनियां री आंख
गूंगी दुनियां री बाणी
मिनख री मरजाद
पूरै मानखै रो पाणी
सुन्दर भावां रो उपजाणियो
धरती नै सुरग बणाणियो
हिम्मत री खैण सगळां रो सैण
पण
ओ धणकरीक बार
पतझड़ में झड़ै पत्ते ज्यूं
खाय हवारा थप्पैड़ा
कदै गळी कूंचळां में
तो कदै रोई रूंखड़ां में
रूळतो फिरै
दब धरती तळै
जूण पूरी करै
ओ सो बरसां में जलमै
इणनै तिलतिल कर मरणो पड़ै
इण रो मांस तो साकाहारी ही खावै
इण रो कंकाळ
काळ में डोका चरतो फिरै।