भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुक्तक-86 / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:49, 15 जून 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह=मुक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हुआ तेरी निगाहों का निशाना
न जाने क्यों हुआ पल में दिवाना।
मुझे कान्हा तुम्हारी याद आये
पुकारूँ जब चले पल भर में आना।।

कली खिल जाये' डाली पर उसे सब प्यार देते हैं
खिले यदि वंश में तो क्यों उसे ही मार देते हैं ?
यहाँ शैतान ऐसे भी जो' कलियों को मसल देते
हृदयहीनों को हम ऐसे बहुत धिक्कार देते हैं।।

न समझें पाक को यह आप का है
सगा खुद का न अपने बाप का है।
हमारे ही बड़ों ने भूल की जो
बुरा परिणाम ये उस पाप का है।।

कन्हैया कन्हैया पुकारा करेंगे
तुम्हारे चरण चित्त वारा करेंगे।
मिलोगे अगर स्वप्न की वीथिका में
मधुर रूप मोहन निहारा करेंगे।।

कही न जाये रूप मोहिनी में हैं अँखियाँ अटकी
कैसे कहूँ उठा दे कान्हा भरी हुई ये मटकी।
कहे सांवरा बजा बाँसुरी सुन बरसाने वाली
मटकी अगर उठा दूँ जाये शोभा इस पनघट की।।