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शीतनिष्क्रिय लड़कियाँ / कुमार मुकुल
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ख़ूबसूरत होती हैं शीतनिष्क्रिय लड़कियाँ
संगमरमर की मूर्त्तियों-सी
वैसी ही जड़ व मृत
नदी की रेत पर पड़े पत्थर-सी
इस अहसास से भरी
कि पहाड़ों व मैदानों से इन खाइयों तक की
दूरी तय की है उन्होंने
कि नदी की शीतल लहरों ने
जाने कितना किल्लोल किया है उनसे
पर वर्तमान
बस रेत पर पड़ी विरासत
जिसे कोई मनचला उठाकर चल नहीं दे
तो पड़े रहना है वहीं
दमकना है दोपहर की धूप में
चांदनी में चमकना है
ठंडाना है और पत्थर हो जाना है
मुस्कुराती हैं शीतनिष्क्रिय लड़कियाँ
कि चिनकती हैं लैंप के काँच-सी
फिर चिन्तित होती हैं
कि चिनकी क्यों सम्बन्धों की तरह
और बेतरह काँपती हैं
कि कोई देखे नहीं उनकी हँसी
छुए नहीं
कि जाने कब बिखर जाएँ वो !